प्रयागराज। बारिश की पहली बूंद के साथ घर आंगन खेत सिवान और वनप्रदेश में रचे बसे अतीत के पावस गीतों की परम्परा को सहेजना बहुत जरूरी है। इन्हीं गीतों में हमारी माटी, परिपाटी संस्कृति, संस्कार, लोकाचार और लोक का इंद्रधनुषी रंग रचा बसा है। लोक कलाकारों को चाहिए कि अपने ऐसे गीतों के लोकरंग को सहेजने के लिए आगे आएं।
यह बातें आकाशवाणी और दूरदर्शन के ग्रामीण कार्यक्रमों के प्रस्तोता और के साथ-साथ माटी के गीतों का बदलता लोकरंग विषय पर शोध कार्य में जुटे चर्चित कवि अशोक बेशरम ने कही। उन्होंने बताया कि धान की रोपाई के साथ साथ रोपनी गीत से शुरू होने वाला वर्षा गीतों का यह सिलसिला प्रमुख रूप से कजरी,मल्हार, पूर्वी, विदेशिया, झूमर लाचारी और आल्हा गीतों के साथ हमारे समाज में चर्चित रहा है। पुरबू के देशवा से चढ़लीं बदरिया,बरसइं लागी ना। मोरे पिया के अटरिया बरसइं लागी ना। या फिर, सखिया वरखा ऋतु कै आवन, पावन माटी महाकै ना। जैसे गीतों की गूंज धान की रोपाई के समय सिवानों में सुनाई पड़ती रही। पावस ऋतु के गीतों का गहबर रंग लेकर प्रायः कजरी ही मुख्य रूप से चर्चित रही। मिर्जापुरी,बनारसी,चौलर,घसिया, बेंगामैनपुरिया, बलियाउटी, मडि़हानी, इलाहाबादी, एकलवरा, शायरी, झूलागीत, जैसे विभिन्न स्वरूपों में लगभग 86 से भी अधिक प्रकार की कजरी गीतों का चलन रहा। आज के बदलते दौर में फिल्मी गीतों के प्रति युवाओं की बढ़ती रुझान और जीवन की आपाधापी में चौपाल की परंपरा से दूर होते गांवो में कजरी, मल्हार और आल्हा जैसे गीतों का लोकरंग धीरे-धीरे सिमटता जा रहा है। नए कलाकारों को अपने बुजुर्गों से इसे संजोने के लिए तालीम लेने के साथ साथ मौसम की अभिव्यक्ति से जुड़कर अपने अतीत के संदर्भ, लोकसंस्कृति की पहचान को कायम रखने के लिए आगे आने की भी जरूरत है। सरकार के संस्कृति विभाग द्वारा भी ऐसे पारंपरिक और अतीत के गीतों को सहेजने के लिए विशेष कार्यक्रम चलाए जाने की आवश्यकता है जिसके माध्यम से लोकमंचों से अपनी प्रस्तुतियों के साथ हमारे लोककलाकार इस सर्जना को आगे बढ़ा सकें।